विधा-गद्य

आकाश बोलता है

आकाश बोलता है

शीर्षक देखकर सोचेंगे कि आकाश कैसे बोलता है? पर वास्तव में आकाश बोलता है

हमारे मन की भाषा में। हमारा मन दुखी होगा तो शून्य में अवसाद बिखरा दिखेगा, निराशात्मक भाव से देखने पर शून्य में निरर्थकता का सत्याभास लगेगा,

बादलों में वेदना बिखरी सी दिखेगी और आल्हाद, उल्लासपूर्ण मन से यही सब विपरीत लगेगा।
ऊंचे नीले आकाश की भव्यता जैसे शिखर सोपान दिखाकर आगे बढ़ने का आव्हान करते लगेंगे।
आकाश बोलता है

बादलों की आकृति में दौड़ते-भागते सफेद दूधिया झाग खुशी के संदेशवाहक और शिशुओं के दूध के दांतों की मुस्कुराहट लगेंगे।
अध्यात्म के मूड में हमें ऊपर बहुत ऊपर स्वप्नलोक सा स्वर्ग दर्शन अनायास होने लगेगा, तो फिर कैसे नहीं कहें कि आकाश बोलता है
मुझे बचपन से आदत है अपने घर से बाहर देखने की, झांकने की।छत के आले में बने छोटे-छोटे झरोखे मेरे बड़े काम आते थे । बगल वाले बड़े से मकान में ढेर सारे किरायेदार रहते थे वो मध्यमवर्गी भी नहीं दाल -रोटी वाले कहे जा सकते थे।

मुझे उनकी दिनचर्या देखने में विशेष मजा आता था और सुबह कब दोपहर में बदल जाती थी मुझे मालुम ही नहीं पड़ता था या तो बंदरों की चिल्ल-पों या मां की घबराई, झुंझलाई आवाज मुझे चौंकाती थी - कंबख्त ऊपर धरी होगी, ना खाने का होश है ना गर्मी का और पढ़ाई तो जैसे मिन्स कर धर दी है।

मैं एक बार में चार -चार सीढ़ी फांदती नीचे पहुंचती और ऐसे हो जाती जैसे कुछ हुआ ही ना हो मतलब मैं कहीं गई ही नहीं थी।
सुंदर नाईन के तीनों बच्चों का मीठी सुपारी सुखाना और नन्हें-नन्हें हाथों से पुड़िया बांधना मुझे अच्छा लगता था। और जब वो सब तरफ देख कर दो दाने मूंह में सरकाते थे तो मैं मूंह फाड़ कर हंस देती थी।

बेचारे सहम कर मुझे देखते और उनकी आंखें ही मुझे समझा देतीं कि मुझे नहीं हंसना चाहिए कहीं मां सुन लेगी तो उन्हें मार पड़ जायेगी। मैं भी इशारे से उन्हें आश्वस्त कर देती थी कि अब नहीं हंसूंगी।

वो सभी मेरी खेल मंडली के साक्षी और मेरे मित्र थे।
गुलाबो की नयी नवेली,लंबे घूंघट वाली बहू, छोटे-छोटे हाथों से पापड़ बेलती मुझे अच्छी लगती थी पर उसका दूल्हा रमुआ की हरकतें, चुरा कर लोई खाना, कभी बींदणी का गाल नोचना उस समय बहुत बुरा लगता था।

अब समझ में आता है बहू का चेहरा क्यों लाल हो जाता था और क्यों वो घूंघट से सीढ़ी की तरफ ताकती थी।
बूढ़ी रेशमा का बड़-बड़ करते हुए बड़ियां चौंटना और फिर बंदरों से रखवाली करना, गंगिया कभी अपनी बेटी और कभी बूढ़ी सास के जूंएं बीनना और नाखून पर धर कर चट-चट मारना भी मजा देता था।

तभी ऊपर वाली छत से आवाज आती थी बो काटा और मैं नंबर वन की पतंगबाज धम्म से कूदकर एक छ्लांग में टीन पर चढ़ जाती थी, पतंग लूटने।

उस अल्हड़ बचपने में कहां होश था उस तीन खन पार करती संकरी गंदी गली का, जो मेरे कूदते-फांदते पैरों के चंद फासले पर होती थी। सच में बच्चों का रखवाला ऊपर वाला ही होता है।

तभी तो दिन में दसियों दफा मैं गिरने से बचती थी और पतंग लूट पाती या नहीं पर भागदौड़ तो जैसे मेरे जिम्में ही थी। और फिर आ बैठती थी अपनी जगह।

जब नत्थू अपने सूखे मरगिल्ले से छोरे के पीछे डंडा लेकर तीनों छतों पर दौड़ता था मैं ताली पीटती देखती थी।
वो रेशमा की गाली और कोसकाट सुनकर ही लौटता था तभी पल्लू से हाथ पोंछती सूरज चौबन चटाई बिछाकर बैठ जाती, अपनी सखी मौली के साथ, फिर जो शुरू होता सास-बहू पुराण तो दोनों की जाड़ों की पूरी सब्जी बिनवा, कटवा कर ही खत्म होता और चटाई समेटती दोनों नीचे उतर जातीं थीं।

मिली और चांदनी जुड़वां बहनें जब मिल-मिल कर बाजार की साड़ियों पर गोटा टांगतीं तो बड़ी प्यारी लगतीं थीं।
वहीं बैठ कर चन्नी और बेबी छापेख़ाने के फर्में मोड़ती थीं और बुधुआ रंगरेज को टोकती जतीं थीं कपड़े धीरे फटकारे नही फर्मा बिगड़ जायेगा।

कभी-कभी फोटो फ्रेम वाला रामा छत से चन्नी पर कंकड़ी मारता भी मैं देख ही लेती थी, जब वह एक आंख मिचकाता था और चन्नी मुस्कुरा पड़ती थी तो मैं नीचे आकर भाभी से पूंछ बैठती थी - भाभी रामा ऐसा कयूं करता है, और चन्नी मुस्कुराती क्यूं है?
भाभी यही कह देतीं थीं बीबी तुम देखा मत करो वो दोनों ही गन्दे हैं।

मेरी समझ में कुछ नहीं आता था और मैं ज्यादा ध्यान से देखकर समझने की चेष्टा में जुट जाती थी। पुरानी बातों को स्मरण कर आज आकाश तकती हूं तो उस समय के सारे उत्तर मिलने लगते हैं फिर कैसे ना कहूं कि आकाश बोलता है

डॉ शैलबाला अग्रवाल
आगरा

Share
About Us

More info...

Ravi Jindal

Sarni, Dist Betul MP

9826503510

agrodayapatrika@gmail.com

Follow Us
Photos

© agrodaya.in. Powerd by Ravi Jindal