संस्मरण

साहित्य यात्रा और संसद भवन

गद्य - विधा, संस्मरण

साहित्य यात्रा और संसद भवन

साहित्य यात्रा और संसद भवन

इसे ईश्वर की अनुकम्पा और मां शारदे का वरदहस्त ही कहूंगी कि मैंने

आंखें ही कागज और किताबों के बीच खोलीं थीं शायद वही मेरा खिलौना बनीं और वही साथी। पिता का व्यवसाय प्रकाशन का था साथ में लेखन में अभिरुचि थी।हमारा निवास चार मंजिल के विशाल भवन में था जिसमें निचले हिस्से में हमारा बड़ा सा मुद्रणालय (प्रेस) स्थित था,उस समय छपाई की प्रक्रिया बड़ी दुरूह होती थी।

पहले शीशे के टाइप से मैटर सैट किया जाता था जिसके कारीगर को कंपोजीटर कहते थे।सैट की हुई गेलियों को हैंड प्रेस पर लगा कर फर्मा बनाया जाता था जिसकी प्रूफ रीडिंग होती थी,फिर दुबारा टाइप से सुधार होता था तब फाइनल प्रिंटिंग को मशीन पर लगता था।

यह फर्मा आठ और सोलह पृष्ठ का बनता था,जिसे कलाकारी से मोड़ कर किताब का आकार दिया जाता था और फिर कटिंग मशीन पर लगा कर अलग-अलग कर क्रमशः बाइंडिंग में बांधा जाता था तब जिल्द होती थी और फिर आमुख पृष्ठ चढ़ा कर सुसज्जित पुस्तक सामने आती थी।

सारी प्रक्रिया नन्हीं -नन्हीं आंखों में समेटते हम बड़े हुए थे और साथ में देखी थी पिता और बड़े भाई की अनवरत लेखनी, बस वही छप गई ह्रदय पर और मस्तिष्क में।

मन में एक संकल्प ले लिया था उस मासूम बचपन में, लेखिका बनने का जिसे आगे बढ़ाया पिता की शाबाशी और मां की प्रेरणा ने। मन से बातें गढ़ना और दर्पण को सुनाना बचपन के खेलों का प्रमुख हिस्सा बन गया था।

जब स्कूल में प्रवेश लिया तो दर्पण की जगह सहेलियों ने ले ली और विद्यालय में बातों की पोटली की उपाधि ही मिल गई थी मुझे। शनिवार की बालसभाएं मन से गढ़ी कहानियों में खत्म होने लगीं।

अध्यापिकाओं की प्रशंसा ने मेरी हौंसला अफजाई की और पत्रिका में अपनी कहानी छपी देखकर मैं फूली नहीं समाई। प्राइमरी से हायर सेकेण्डरी तक यही सब जारी रहा और फिर कालेज और विश्वविद्यालय के बुलेटिन्स ने तो जैसे मशहूर ही कर दिया।

विवाहोपरांत पतिदेव अपने से भी आगे मिले, फिर तो शौक परवान चढ़ना ही था। गद्य तो मैं लिखती ही थी अब पद्य का भी चस्का लगने लगा था।

पतिदेव के साथ काव्य गोष्ठियों के मंचों पर जाना भी सुलभ हुआ और मुझे अपना सपना साकार होता दिखने लगा। 1971 में मथुरा आकाशवाणी से 12 मिनिट के प्रसारण ने मेरा उत्साह द्विगुणित कर दिया।

उसी वर्ष मैंने उपन्यास 'मालिनी' और 'जिन खोजा तिन पाईयां'की पांडुलिपि तैयार करके रख दी। फिर तो कहानी और कविता लिख-लिख कर एक बुक शेल्फ भर दी मैंने जिनका प्रकाशन संभव हुआ सन् 2000 से जब वृद्ध सासू मां की सेवा से निवृत्ति मिली तभी सितंबर माह में मैंने आगरा की साहित्यिक उर्वरा भूमि की परम्परा को अनवरत रखने के उद्देश्य से आगरा महानगर लेखिका समिति की स्थापना कर दी जिसे आज साहित्यकारों की फैक्ट्री की संज्ञा दी जाती है।यह एक पंजीकृत समिति है।

इसकी वार्षिकी निसृत का निरंतर प्रकाशन होता रहा है।इस बीच मैंने देश से विदेश तक कई साहित्यिक यात्राएं भी कीं और वहां से लौटकर यात्रावृत्तांत भी प्रस्तुत किये।मेरे साहित्य प्रेम ने मुझे बहुत से साहित्यिक मंचों तक पहुंचाया और विभिन्न सम्मानों की उपलब्धि भी हुई जो मेरे स्मृति पटल पर सदैव अंकित रहेंगे।

इसमें सर्वाधिक स्मरणीय क्षण जो मुझे आज भी रोमांचित कर जाते हैं,वह है14 सितंबर 2002 का दिन।जब मैं जे.एम.डी प्रकाशन दिल्ली के स्वामी डॉ राघवेंद्र जी द्वारा संसद के केंद्रीय कक्ष में आयोजित भव्य समारोह में अपने पति के साथ आमंत्रित थी।

पूरे देश से पधारे साहित्यकारों से हाल खचा-खच भरा था। सम्माननीय मंच पर विराजमान थे स्पीकर लोकसभा श्रीमान शिवराज पाटिल,पूर्व केन्द्रीय मंत्री, एवं संसदीय हिंदी समिति अध्यक्ष माननीय श्रीमती सरोजनी महेशी , केंद्रीय मंत्री श्री सत्यनारायण जटिया, पद्मश्री श्याम सिंह 'शशि'और आयोजक श्री राघवेन्द्र जी। कार्यक्रम का संचालन कर रहीं थीं डॉ रमा सिंह।संचालक ने माइक से कार्यक्रम का अजेंडा प्रस्तुत करते हुए कहा कि मंचीय कार्यक्रम में सभागार में उपस्थित बारह रचनाकारों को अपनी प्रस्तुति का अवसर दिया जायेगा।आप सभी से आग्रह है कि अपनी रचना की दो पंक्तियां नाम सहित पर्ची पर लिख कर मंच तक पहुंचा दें। उनमें से चयनित 12 रचनाकारों को हम काव्यपाठ का अवसर अवश्य प्रदान करेंगे।

मैंने पतिदेव के आग्रह पर अपनी कविता

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'पेड़ की पीड़ा'

की दो पंक्तियां नाम सहित वहां पर्ची पर लिख कर पहुंचा दीं। मैं देख रही थी कि रमा जी के पास वैसी पर्चियों का ढेर लगता जा रहा था। मुझे तो अपनी कतई उम्मीद नहीं थी

अतः मैं बिल्कुल शांत बैठी थी, लेकिन जब चयनित बारह में मैंने अपना नाम सुना तो मैं विस्मित रह गई। मेरी धड़कन बढ़ गई थी और मैं बगल में बैठे पति से कह रही थी 'आपने मुझे फंसवा दिया, हे भगवान इतने उच्च मंच से मैं भला क्या सुना पाऊंगी?' ये मेरी हौंसला अफजाई कर रहे थे, क्यों भई क्यों नहीं सुना पाओगी,आराम से सुनाना! मैं आंख बंद कर भगवान का स्मरण करने लगी थी,तभी मेरे कान में पिताजी के वो शब्द गूंजने लगे जो उन्होंने मुझसे मेरी वाद-विवाद प्रतियोगिता की प्रथम भागीदारी पर कहे थे सबसे अधिक सुजान समझते हुए बोलना शुरू करना और पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलती जाना,देखना जीत तुम्हारी होगी ,बस मेरा विश्वास जमने लगा और बौखलाहट जाने कहां गायब हो गई। थोड़ी देर बाद मेरी बारी भी आ गई और मैंने मंच और सभागार को संबोधित करते हुए काव्यपाठ आरंभ कर दिया। मेरी कविता का प्रतिपाद्य था 'पर्यावरण' इस कविता की रचना मैंने उसी वर्ष गर्मियों में दिल्ली से लौटते समय मई की तपती दुपहरी में अखवार के हासिये पर मांगे की पेंसिल से की थी।

कविता कुछ यूं थी

पेड़ की पीड़ा

छाती फाड़ धरती की जब
नव अंकुर फूटा था
साथ स्वजन का छोड़
तनिक सा मन भी टूटा था
श्याम श्यामला माटी पर
जब तन को ओढ़ा था
नया देखने को
अपनों को छोड़ा था
एक नन्हीं सी पौध रूप में
जीवन पाया था
तभी एक संकल्प
ह्रदय के अंदर आया था
धूप ताप सह,पोषित हो
यदि जीवन पाऊंगा
तो मैं,नन्हां
प्रकाश पुंज से भी टकराऊंगा
थके पथिक को छाया दूंगा
रस बरसाऊंगा
पके -पके मीठे फल देकर
भूख बुझाऊंगा
इसी भाव से धूप सही
आंधी तूफान सहे
अस्तित्व बनाए रख्खा
सेवा के भाव गहे
बीता समय
पौध से, पौधा बन पाया
पौधे से वृक्ष बना
सूरज से टकराया
सत्य हुआ संकल्प
जानकर,मन में हरषाया
पुष्ट हुआ तन
लदा फलों से
तब कोई ना सह पाया
जिनको दी छाया और मीठे फल
उन ने ही कटवाया

अन्तिम पंक्ति तक मेरा मन पेड़ की पीड़ा से भीगने लगा था जिसका आभास शायद मेरी आवाज भी दे रही थी और कक्ष करतल ध्वनि से गूंजने लगा था। सहृदय सरोजनी जी ने खड़े होकर सराहना की तो मेरा मन बल्लियों उछलने लगा।

जब मैं अपने स्थान पर लौटी तो आगे पीछे से उठे हाथ मुझे बधाई दे रहे थे और मेरे पति की आंखों की चमक मुझे अनोखी खुशी दे रही थी।

उस दिन की अनुभूति आज भी रोमांचित कर जाती है फिर तो जैसे हर सांस नये उत्साह से सराबोर हो जाती है। कलम निरंतर चल रही है और मेरी पंद्रह प्रकाशित पुस्तकें मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही हैं।

आगरा में हम साहित्यकारों का एक परिवार सा बन गया है। जिसमें श्रद्धेय प्रताप दीक्षित जी,चौधरी सुखराम सिंह जी,सोम ठाकुर जी, गोपालदास नीरज जी, राजबहादुर सिंह राज जी आदि का नित्य सानिध्य मिलता रहा अब उनके स्वर्गवासी होने पर उनके साथ बिताये क्षण भी मधुर संस्मरणों का सृजन करायेंगे।

भगवान से प्रार्थना है कि मेरी ये यात्रा अंतिम सांस तक यूं ही चलती रहे। मां सरस्वती लेखनी को अमरता दें और मैं लिखती रहूं।
डॉ शैलबाला अग्रवाल
आगरा

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