शाख से टूटे पत्ते अपने जख्म किसे दिखाएँ
जब अपनों ने छोड़ा हाथ तो दर्द किसे सुनाएँ
कभी हमसे ही इस गुलिस्तां की जान थी
जब थे शाख पे तो अपनी भी इक पहचान थी
अब जो छुड़ा लिया अपनों ने ही दामन हमसे
दर्द ये सुनाएँ भी तो अब हम जाके किससे
शाख से वैसे भी पत्ते यूहीं नही गिरा करते
बिछड़ गए जब अपनों से तो जिया नही करते
कभी हमको ये गुमान था शाख की हस्ती हमसे
अब हुआ है चूर चूर हर गुमान कसम से
सच तो ये है की अपने अपने ही होते हैं
बदनसीब है वो जो गुरुर मे अपनों को खोते है
जो खता हो किसी अपने से तो दिल से उसे भुला दो
झुक सको झुक जाओ कभी , कभी उसको झुका दो
रिश्तों का यही तकाज़ा है प्यार से इनको निभाओ
टूटने लगें जो पत्ते शाख से सहारा दो उन्हे अपनाओ
टूट के बिखरे है जो आस- पास अपने बुरे हालात से
सहेज लो उनको भी बजाय की आग उनमे लगाओ
Ravi Jindal
Sarni, Dist Betul MP
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