मुक्तक

ब्रज वापस आन बसो मन में

ब्रज वापस आन बसो मन में

विधा-पद्य
(वियोग शृंगार रस प्रधान सवैया छंद)

ब्रज वापस आन बसो मन में

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हरि छोड़ गए जिस हाल हमें, यमुना तट आज लुभाय नहीं।
घट नीर लिए उर पीर उठी,अब कूल- तरंग सुहाय नहीं।
अँधियारि अमावस सावन की, बिन श्याम सखी अब भाय नहीं।
बरसे बदरा हुलसे जियरा, मुरली घनश्याम सुनाय नहीं।

सुख-चैन चुराय लियो हमरा, छवि देखन को जिय डोल रहो।
बहता कजरा मुरझा गजरा,सुन भेद जिया अब खोल रहो।
सरकी चुनरी लुढ़की गगरी,हिय मोहन- मोहन बोल रहो।
सुधि को बिसरा जग ढूँढ़त हूँ ,तव नाम पिया अनमोल रहो।

नल नाद सरोवर सूख गए, दुख पाहुन, पेड़ छुपाय रहे।
नयना नहिं माखन, दूध तकें, बिन नंद लला अकुलाय रहे।
मुसकान छिनी, दुख आन परो, घर-आँगन शोक मनाय रहे।
मुरलीधर पूरण चाह करो, भज केशव रैन बिताय रहे।

जिय धीर धरे न रमे जग में, तम को हर के उजियार करो।
ब्रज वापस आन बसो मन में, हर कष्ट सुनो व्यवहार करो।
अब घोर निशा- प्रभु दूर भगा, तुम आ मम संकट पार करो।
वृषभान लली कर जोड़ कहे, इस जीवन पे उपकार करो।


डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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