पद्य

पंचमहाभूत तत्वों पर हाइकु

विधा-पद्य

(हवा, पानी, आग, आसमान, धरती)

पंचमहाभूत तत्वों पर हाइकु

पंचमहाभूत तत्वों पर हाइकु

हवा/वायु/पवन/वात हाइकु

(1)मस्त पवन
चूमती है बदन
प्रीत जगाए।

(2)धूर्त पवन
चुनरी लहराए
गोरी मुस्काए।

(3)मंद पवन
आँचल से खेलता
झूमे मगन।

(4)नदी किनारे
संग वात हमारे
करे ठिठोली।

(5) शुद्ध हवा से
स्वास्थ्य निरोग रहे
बढ़ती आयु।

जल/नीर/पानी
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(1)जन अधीर
चिलचिलाती धूप
तलाशे नीर।

(2) जल जीवन
अमृत के सदृश
मानो आभार।

(3)प्यासा परिंदा
ताल किनारे बैठ
पानी तलाशे।

(4)आँख का पानी
ठुलक गाल पर
व्यथा सुनाता।

(5)मन हरषे
भूमि जल बरसे
नाचे मयूर।

आग/अग्नि
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(1)प्रेम की अग्नि
हृदय झुलसाती
याद रुलाती।

(2)उर में आग
ईर्ष्या, द्वेष से लगी
स्वभाव दोष।

(3) द्वंद्व बढ़ाए
मजहब की आग
देश जलाए।

(4) राम सिया की
लेते अग्नि परीक्षा
रख मर्यादा।

(5)विरह अग्नि
यौवन को जलाती
याद सताती।

आसमान/गगन
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(1)भर उड़ान
विस्तृत गगन में
विहग चले

(2)नीला आसमाँ
कड़कती दामिनी
नेह लुटाए।

(3) गगन चुंबी
महत्वाकांक्षा रख
पंख पसार।

(4)प्रीत की डोर
बल खाती पतंग
गगन चली।

(5)विरहा रात
आसमान बरसा
फूट धरा पे।

धरती/धरा/भू
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(1)शुष्क धरती
अंबर को तकती
आस लगाए।

(2)धरा नहाई
आसमानी जल से
लौटा यौवन।

(3)ओढ़ चूनर
सतरंगी तन पे
भू इठलाई।

(4)हरित आभा
छितराई भू पर
जन हर्षाए।

(5) सिर पर ले
मखमली टोकरी
भू मदमाए।


सरस्वती स्तुति

सरस्वती स्तुति

(सरसी छंद में पद )

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शारदे हरो तमस अज्ञान।
मैं मति मूढ़ महा अज्ञानी, अवगुण की हूँ खान।
ज्ञान शून्य मन भटक रहा है,नहीं मुझे कुछ भान।।
ज्ञान चक्षु भी बंद पड़े हैं, मैं बालक नादान।।
काम, क्रोध, मद, लोभ ग्रसित मैं, कैसे हो कल्यान?
हंसवाहिनी मुझे उबारो, भरो हृदय संज्ञान।।


कपटी रिश्ते

कपटी रिश्ते

(सरसी छंद में पद)

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मधुरता शेष नहीं व्यवहार।
कपटी रिश्ते बन रह जाते, दंभ पतन आधार।
पहन मुखौटा अपने करते, अपनों पर नित वार।
अवसरवादी आज विभीषण, छलते निज परिवार।
संबंधों में पड़ी दरारें, मध्य खड़ी दीवार।
माया का उर लोभ बसाया, टूट गए घर द्वार।


निर्धनता

निर्धनता

(सार छंद में पद)

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बेघर निर्धन पथ ठिठुराता।
अर्थ हीन मानव इस जग में, दुत्कारा ही जाता।
हस्त बढ़ा दूजे के आगे, ठोकर ही नित खाता।
मिष्ठानों की देख दुकानें, उसका मन ललचाता।
दाम पूछ कर नयन लजाते, जेब रिक्त जब पाता।
कोस भाग्य को अपने रोता, पीड़ा किसे सुनाता।


व्यभिचारी मनुज

व्यभिचारी मनुज

विधा-पद

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व्यभिचारी मनुज रुलाते हैं।
छद्मवेशधारी रावण निज,दंभ दिखाते हैं।
दया,धर्म पथ तज नफ़रत का, पाठ पढ़ाते हैं।
शस्त्र थाम घूमें आतंकी, भय फैलाते हैं।
पाप शीश चढ़ दुष्कर्मी के, नित्य सताते हैं।
संतों का ये चोला पहने, द्वेष बढ़ाते हैं।

सशक्त नारी

सशक्त नारी

(सार छंद पर पद सृजन)

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सुंदर सभ्य समाज बनाया। नारी जीवन की फुलवारी, घर -आँगन महकाया। पत्नी बनकर संतति देकर, अपना मान बढ़ाया। रूप, शील, ममता मूरत बन, सरस नेह बरसाया। अपने क्रंदन को मन रखकर, रिश्तों को महकाया। हार न मानी संघर्षों से, हँसकर बोझ उठाया। नारी के बिन पुरुष अधूरा, अद्भुत इसकी माया। ईश्वर की सुंदरतम रचना, कोई समझ न पाया।।

डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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