कविता

पुस्तक की व्यथा

पुस्तक की व्यथा

विधा- कविता

पुस्तक की व्यथा

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आज व्यथा पुस्तक की सुन लो
कैसा यह कलयुग आया है?
खोज-खोज गूगल में सब हल
मानव ने मान घटाया है।
ज्ञान स्रोत गूगल बन बैठा
जिज्ञासा का तोड़ यहाँ है,
पल में हल जो ढूँढ निकाले
दूजा कोई जोड़ कहाँ है?
बोझ तले भारी बस्तों के
दुत्कारी जाती हैं पुस्तक,
आज पढ़े दुनिया पोथी बिन
मन में सिसक रही हैं पुस्तक।
वैज्ञानिक युग की पूछो तो
गूगल रुत्बा निगल गया है,
याद ज़हन में ज़िंदा फिर भी
वक्त हाथ से निकल गया है।
नीम तले बैठक चलती थीं
खोल पृष्ठ जुम्मन पढ़ते थे,
हास्य-व्यंग्य की कविता सुनकर
बैठे लोग हँसा करते थे।
पुस्तक अदली-बदली करके
अगनित रिश्ते नित बनते थे,
बंद किताबों के भीतर तो
कितने ही प्यार पनपते थे।
जिल्द चढ़ाकर इसके तन पर
पूरा कुनबा पढ़ लेता था,
दूजे को फिर बेच किताबें
आधे दाम झटक लेता था।
कल तक लोगों के जीवन में
सुुख-दुख साँझा ये करती थीं,
फ़ुर्सत के लम्हों में सबके
हाथों की शोभा बनती थीं।
आज नहीं है कद्र कहीं भी
बेबस लाचारी ढोती हैं,
बंद पुस्तकालय में प्रतिपल
पीड़ित सब पुस्तक रोती हैं।
पिंजरबद्ध खगों-सी हालत
बीते कल को तरस रहीं ये,
झाँक रहीं सब बंद पटों से
राह देखतीं बरस रहीं ये।


उजाला रास ना आया

'उजाला रास ना आया’

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कहूँ किससे व्यथा अपनी
यहाँ कितना सहा मैंने।
दरिंदों से हुई लाचार
लब को सिल लिया मैंने।
कदम बढ़ते नहीं थल पर
भयावित काँपती हूँ मैं।
छुएँ ना हाथ दुर्योधन
कलेजा ढाँपती हूँ मैं।
घसीटी बाँह ,तन लूटा
मगर कोई नहीं आया।
हुई जब खून से लथपथ
सड़क पर फेंक दी काया।
सुबह जब होश में आई
पड़ा अपनों से तब पाला।
निकाला वास्ता देकर
किया था रात मुँह काला।
हुई बे-आबरू जब से
उजाला रास ना आया।
तड़प जीने नहीं देती
मुझे मधुमास ना भाया।
कभी जुए में हारी तो
कभी श्री राम ने त्यागा।
तमाशा बन गई नारी
मगर इंसान ना जागा।
किया रुस्वा जमाने ने
धरा सीता समा बैठी।
लुटाकर द्रोपदी निज लाज
अपनों में लजा बैठी।
न सतयुग रास आया था
न कलयुग रास आया है।
सदा हारी यहाँ नारी
यही अहसास पाया है।


हे केशव नव अवतार धरो

“हे केशव नव अवतार धरो”

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घात लगाए बैठे दानव
मानवता क्यों भूल गए?
रक्त रंजित धरा पर हँसते
देकर हमको शूल गए।
संबंध भुला शकुनी मामा
पापी दुर्योधन दाँव चले।
बली चढ़ी अपनों की छल से
बेघर पांडव छाँव तले।
देख पूत को धाराशाई
कुंती भी संत्रस्त हुई।
भीगा आँचल फूटी ममता
रोने को अभिशप्त हुई।
सुकमा तकते धृतराष्ट्र मौन
संचालन ये है कैसा?
नरभक्षी के आगे नत क्यों
कायरपन ये है कैसा?
किससे जाकर कहे वेदना
कलयुगी नरसंहार की?
हे केशव ! नव अवतार धरो
पीड़ा हरो संसार की।


सिंहासन

'सिंहासन'

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आज लिखें इतिहास नया हम
सत्ता के सिंहासन का,
अँधियारों से लड़ने वाले
सरकारी निर्वाचन का।
भ्रष्टाचार हुकूमत करता
मेहनतकश इंसानों पर,
सुप्त व्यवस्था गूँगी-बहरी
चुने इमारत लाशों पर।।
निर्धनता में दबी हुई हैं
बेबस चींख गरीबों की,
बुद्धिजीवियों को दिखती है
केवल पीर अमीरों की।
मासूमों की लाचारी को
लिख दें अब अंगारों से,
वो परिवर्तन दिखला देंगे
धधक उठे जो नारों से।
घर के जयचंदों को मिलकर
ईंटों में चुनवाएँगे,
अपराधी को बर्बरता से
नैतिकता सिखलाएँगे।
कलमकार का फ़र्ज़ निभाकर
अंतस अलख जगाएँगे,
गद्दारों के नाम चयन कर
शिलालेख लिखवाएँगे।


माँ

"माँ"

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नादानी में मैंने माँ को,
कितना नाच नचाया था।
माँ ने मुझको गोदी लेकर,
ढेरों लाड़ लड़ाया था।
बारिश की बूँदों में माँ तू,
छतरी लेकर आती थी।
कागज़ की फिर नाव बनाकर,
चुंबन देकर जाती थी।
आँसू पा मेरे नयनों में,
छिप-छिपकर तू रोई थी।
अंक सुलाकर मुझको अपनी,
तू ने निद्रा खोई थी।
देख अकेला रोता मुझको,
गोदी ले दुलराती थी।
सात खिलौने देकर मुझको ,
लट्टू से फुसलाती थी।
गुरु साहिब की तू है वाणी,
तू तुलसी की चौपाई।
सूरपदों की मातृ यशोदा,
फूलों जैसी मुस्काई।
याद करूँ जब बचपन अपना,
मैं सपनों में खो जाती।
तेरी ममता साथ लिए मैं,
परियों के घर हो आती।
आज कहे 'रजनी' माँ तू ने,
हर सुख को ठुकराया था।
आँचल में दुबका कर तू ने,
अपना चैन गँवाया था।

डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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