कहानी

यौवन की दहलीज़ पर

यौवन की दहलीज़ पर

विधा- गद्य
कहानी

यौवन की दहलीज़ पर

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मौसम की ठंडी फुहार और क्यारी में खिले पीले फूल आज फिर मन के दरीचों से अतीत की स्मृति ताज़ा करने पर आमादा हो गए हैं। गोधूलि की बेला में फिर कोई पागल बादल झूमकर बरसने को आतुर है।

बदली की ओट में छुपा चाँद एक बार फिर कॉलेज के दिनों की याद दिला रहा है। तीन साल बीत गए नीलेश से मिले पर आज भी यूँ लगता है जैसे वो इन पीले फूलों के बीच मेरे आस-पास मौज़ूद है। उसके अहसास ने एक बार फिर गुज़रे कल से मेरी मुलाकात करा दी।

कॉलेज में फ्रेशर्स पार्टी के दिन कुछ खास होने वाला था। आज की शाम पूरे जोश, उमंग व उल्लास से भरी थी। उत्साह अपने चरम पर पहुँच गया था। उत्सव अपने अंतिम पड़ाव पर था। सभी स्टूडेंट्स की नज़र उद्घोषक वरुण के हाथ के लिफ़ाफ़े पर थी। विजेता का नाम घोषित करने हेतु वरुण हाथ में लिफ़ाफा दिखाते हुए कह रहा था-

"उल्लासित मन झूम रहा है, देख नज़ारा प्यारा।
नवल छात्र स्वागत करने पद, उद्घोषक स्वीकारा।।"

यौवन की दहलीज़ पर

दिल थामकर बैठिए जनाब, विजेता की किस्मत मेरे हाथ के लिफ़ाफे में कैद है जिसे मैं खोलने आ गया हूँ। तो आज की मिस फ्रैशर हैं ए ए .... कौन हैं? रीना, सीमा, ज़न्नत.....? जी हाँ, बिल्कुल सही अंदाज़ लगाया। आज की मिस फ्रेशर नील गगन की नील परी-सी ,नीली-नीली आँखों वाली मिस 'नीलोफर' हैं।

अपना नाम सुनकर मैं पास खड़ी विदुषी को पकड़ कर चिपट गई। इस हंसीन शाम की विलक्षण अनुभूति मेरे लिए असहनीय हो गई थी। मैं खुशी के मारे फूट-फूटकर रोने लगी। मंच पर ताजपोशी के साथ ही साथ मुझे सम्मानित भी किया गया।

पूरा हॉल करतल ध्वनि से गूँज उठा। सामने खड़े नीलेश की अंत तक बजने वाली तीन ताली और "वाओ" की उत्प्रेरित करने वाली स्नेहिल ध्वनि ने सहसा मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया।

मैं सब कुछ भूलकर उसकी खुशी के इज़हार में तन्मयता से डूबकर टकटकी लगाए ठगी निगाहों से निर्निमेष नीलेश को ताकने लगी। कैसा अद्भुत पल था यह, जब एक साधारण सी लड़की महफ़िल की शान बनकर हर दिल अजीज़ हो गई थी। नीलेश का आकर्षक व्यक्तित्व व मनमोहक सूरत नयनों के रास्ते कब मेरे दिल में पैठ बना गई ....कुछ पता ही नहीं चला।

वो मुझसे एक साल सीनियर था। हमारी मुलाकातों का सिलसिला कैंटीन से शुरू हुआ, जब उसने मेरी कज्जलकोर मृगनयनी आँखों में अपनत्व से झाँक कर शायराना अंदाज़ में कहा था-

"मृगनयनी प्यासे अधरों को आज पिला दे मधुशाला"......

यौवन की दहलीज़ पर

तो नज़रों से छू लेने वाला उसका मीठा अहसास मेरे दिल के तारों को झंकृत कर गया था और नाराज़गी ज़ाहिर किए बिना मैं लजाकर मुस्कुरा रही थी। मुलाकात का ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा।

कॉलेज के दिनों में हम जूही के पीतवर्णी पुष्पों के नीचे अक्सर हाथ- में- हाथ लिए न जाने कितने पल प्यार के सपने सँजोते हुए मदहोशी में गुज़ारा करते थे।

क्लास बंक करके फिल्म देखने जाना, मुच्छड़ के गोलगप्पे खाना, शायराना अंदाज़ में तारीफ़ें करना, मेरे शरमाने पर गुनगुनाते हुए बाइक पर बैठा कर दूर तक निकल जाना , बारिश आने पर मेरी चुन्नी की छतरी बनाकर बच्चों की तरह सिर छुपाना जैसी शरारतें हमारी रोज़मर्रा की दिनचर्या का हिस्सा बन गई थीं।

देखते-देखते दो साल पलक झपकते निकल गए। नीलेश बी.सी.ए.क्वालीफाइड करके बैंगलोर चला गया और मैं अपना करियर बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत में जुट गई थी, पर कॉलेज का हर हिस्सा नीलेश की यादें मेरे ज़हन में ताज़ा करने से बाज़ नहीं आता था।

नीलेश की सख्त हिदायत थी...नो फ़ोन कॉल। इस समय तुम्हें अपना सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई में लगाना है। उसकी यादों के गुलिस्ताँ को दिल में सँजोए मैं अधिक-से-अधिक समय लाइब्रेरी में किताबों के बीच बिताने लगी।

देखते-देखते फाइनल इअर भी पास आउट कर लिया। पापा जल्दी- से-जल्दी मेरे हाथ पीले करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते थे पर मैं आगे पढ़ने की ज़िद्द में पापा से कुछ समय और चाहती थी। न चाहते हुए भी पापा को मेरी बात माननी पड़ी।

पर किस्मत का लिखा कौन टाल सकता था। कोरोना के भयावही निष्ठुर काल ने पापा को अपना निवाला बना लिया। देखते-देखते अँधकार के काले साये ने हँसती-खेलती ज़िंदगी में मौत का सियापा भर दिया।

यौवन की दहलीज़ पर


कुछ समय बाद अनमने मन से दिल की हसरतों को अतीत समझकर मम्मी को लेकर मैं हैदराबाद मौसी के यहाँ चली आई। चूँकी कंपनीज़ में ऑनलाइन काम चल रहा था। अत: डिग्री होते हुए भी जॉब लगने का कोई चान्स नज़र नहीं आ रहा था।

घर के बिगड़ते हालातों के सामने सिर झुकाकर हॉस्पिटल में नौकरी करना मेरी मज़बूरी बन गई। किसे मालूम था कि जागती आँखों से देखे सपने यादों में कैद होकर रह जाएँगे। माँ को अकेले छोड़कर ज़िंदगी में आगे बढ़ना मेरे लिए नामुमकिन-सा था।

आज फिर यौवन की दहलीज़ पर खड़े हुए अतीत के पहले सावन को गुनगुनाती हुई मैं बालकनी में लगे जूही के इन पीले फूलों की सुगंध को अपने मन के सूने आँगन में महसूस कर रही हूँ।


डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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