गीतिकाएँ

जीत का विश्वास

जीत का विश्वास

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देख नर्तन सृष्टि का चुप साध बैठा मोर अब,
मर रहीं संवेदनाएँ नम पलक की कोर अब।

पाल दानव वृत्ति मानव रौंदता संसार को,
रक्तकण से माँग भर भू चींखती चहुँ ओर अब।

कुटिलता भगिनी बनाकर स्वार्थ तांडव कर रहा,
उफ़नतीं जलधि तरंगें विवश तकते छोर अब।

लोभ, लालच व्याप्त उर में कर रहे अठखेलियाँ,
सुप्त है संचेतना तम छा गया घनघोर अब।

वक्त को देकर चुनौती लक्ष्य उर में साध कर,
हौसलों की भर उड़ानें थामनी है डोर अब।

आस के दीपक जला कर, जीत का विश्वास रख,
दिग्विजय की ठान मन में क्यों पड़ें कमज़ोर अब?

अश्वरथ आरूढ़ होकर ध्येय पथ पर बढ़ चलें,
जागरण की ले मशालें हम करें नव भोर अब।


चंद्रमुखी

चंद्रमुखी

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चंद्रमुख शुभ यौवना घट तारिका भरने लगी।
रजत चूनर ओढ़ तन पर घोर तम हरने लगी।

कृष्ण कुंतल शोभना विचरण करे तट आपगा,
यों लगे तल व्योम के शुभ चांँदनी झरने लगी।

देख शतदल नीर में खिलता सुलोहित दीप-सा,
चंचला मुस्कान अधरों पर सहज धरने लगी।

मोहिनी चहुँदिश थिरकती छेड़ती मृदु रागिनी,
शुभ्रवर्णा मानवी अठखेलियाँ करने लगी।

तामरस दृग मोहिता मन पुष्पगंधा का छले,
अंक प्राजक्ता भरे शोभा अमिट वरने लगी।


संस्कार

संस्कार

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संस्कार जीवन में देते, अनुशासन, सम्मान,
सशक्त औषधि ये जीवन की, सुख की सच्ची खान।

ममता की घुट्टी हैं समझो, ये शिशु का श्रृंगार,
शुभ लक्षण, शुभ ध्येय यही हैं, जीवन हो आसान।

मातु- पिता का पोषण हैं ये, गुरुजन के सिद्धांत,
संस्कार से हीन मनुज को, मिलता नहीं निदान ।

त्याग द्वेष बन विनयशील जन, करता निज व्यवहार,
संचित पूंँजी ये जीवन की, बनता मनुज महान।

सद्गुण बीजारोपित करके, देते ये उपचार,
परिचय बनते ये मानव का, बनते हैं पहचान।


कृषक

'कृषक'

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सुखों का त्याग कर निर्धन कृषक जीवन बिताते हैं।
लिए छाले हथेली पर नयन सपने सजाते हैं।

चला गुरु फावड़ा भू पर उठाकर शीश पर बोझा
प्रहारों का वसन पहने कर्म अपना निभाते हैं।

लहू श्रम स्वेद का बहता झलकतीं अस्थियाँ इनकी
थपेड़े वक्त के खाकर भूख तन की मिटाते हैं।

थके हारे कृषक गृह लौट शय्या शूल की सोते
सहन कर आपदा दैहिक नहीं पीड़ा जताते हैं।

बने बुनियाद के प्रस्तर गलाकर देह को अपनी
दबे खुद कर्ज़ के नीचे जगत खुशियाँ लुटाते हैं।

इन्हीं के वज्र काँधे पर टिकी धरती समूची है
बनाकर स्वर्ग अवनी को बुझे दीपक जलाते हैं।

स्वयं दिन झोंपड़ी में काट विपदा के गुज़ारे हैं
धरोहर मान पुरखों की देश उन्नत बनाते हैं।


नरगिसी आभास

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नरगिसी आभास लेकर चूमती जलधार को।
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।

गुदगुदाती सीपियाँ भरतीं हृदय अनुराग हैं,
गाल गीले कर तरंगें दे रहीं उपहार को।

रेत के सागर किनारे उर बसा प्रिय नाम है,
नयन उत्कंठित हुए हैं प्रीत के सत्कार को।

जलधि की उत्ताल लहरें छेड़तीं मृदु राग हैं,
कामनाएँ तप्त हो चाहें स्वयं अधिकार को।

प्यार मीरा, प्यार राधा, प्यार पावन भावना,
चाहती अब भोगना सुख-नेह के व्यवहार को।

डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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