-----------------
सुधियों की गठरी खोली तो, एकाएक नयन भर आए।
मानस पर अंकित चिह्नों ने, अगणित पृष्ठ सहज लिखवाए।।
आज नहीं कुछ पहले जैसा, छूट गए वो पल जो कल थे।
फिर जीवन में खोज रहा मन, उन लम्हों को जो चंचल थे।।
भावी जीवन देख न पाऊँ, वर्तमान भी छूटा जाए।
मानस पर अंकित चिह्नों ने, अगणित पृष्ठ सहज लिखवाए।।
उठते प्रश्न ज़हन में कितने, शैतानी फिर कर पाऊँगी?
बेफ़िक्री के पंख धार कर, मोहक तितली बन जाऊँगी?
लगे हक़ीक़त बेगानी- सी, सच्चाई दर्पण दिखलाए।
मानस पर अंकित चिह्नों ने, अगणित पृष्ठ सहज लिखवाए।।
ख़ामख़ाह मैं बड़ी हो गई, इससे अच्छा तो बचपन था।
मनमर्ज़ी चलती थी जिसमें, वो गुलछर्रों का आँगन था।
अभिलाषा के वशीभूत उर, कौतूहल दृग से छलकाए।
मानस पर अंकित चिह्नों ने, अगणित पृष्ठ सहज लिखवाए।।
--------------
उद्गारों को बेड़ी बाँधी, अभिव्यक्ति से डरते हो।
छुपा स्वयं को आज स्वयं से, आत्मघात क्यों करते हो?
जल प्रवाह को बाँध न सकते,
कितने अटल किनारे हों।
कालचक्र को रोक न सकते,
कितने सबल सहारे हों।
करो सामना संघर्षों का, रुदन हृदय क्यों भरते हो?
छुपा स्वयं को आज स्वयं से, आत्मघात क्यों करते हो?
खुद से भाग नहीं पाओगे,
साया साथ निभाएगा।
आँधी-तूफ़ानों में डटकर,
दीपक ज्योति जगाएगा।
घोर अमावस तम अंतस का, आज नहीं क्यों हरते हो?
छुपा स्वयं को आज स्वयं से, आत्मघात क्यों करते हो?
समाधान हेै भय का साहस,
हार जीत में बदलेगा।
बाहर निकलो बीते कल से,
आज नहीं कल सँभलेगा।
नाकामी के बोझ तले नित, तिल -तिल कर क्यों मरते हो?
छुपा स्वयं को आज स्वयं से, आत्मघात क्यों करते हो?
----------------
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।
मंद पवन का झोंका छूकर,
दे संदेश रुलाता है।।
रेत समेटे अहसासों की,
सुंदर स्वप्न सजाया था।
कोमल अँगुली के पोरों से,
मिलकर महल बनाया था।
आज निरख कर अवशेषों को-
निश्छल प्रेम सताता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।।
धवल यौवना झूम रही थी,
आँचल भू महका धानी।
सीप बनी थी रेत बूँद पी,
केशों से टपका पानी।
खोज गहन है ढूँढ़ न पाऊँ-
याचक मन तड़पाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।।
रेत बिछौना खग का कलरव,
लोरी गा दुलराता था।
जल की थपकी बदन चूमती,
मन भोगी ललचाता था।
सूर्य रेत लाली छितराकर-
मनोयोग दिखलाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।
मुठ्ठी में भर रेत पकड़ते,
वक्त फिसलता जाता था।
मन के सँकरे गलियारों में,
सन्नाटा भर आता था।
सूखे आँसू,पतझड़ मौसम-
रोम-रोम कलपाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का-
तेरी याद दिलाता है।।
------------
भाग्य विधाता दृढ़ संकल्पी, माने कभी न हार।
परशुराम सम अटल इरादे, भुजबल का आधार।।
संकल्पों के पंख पसारे, भरता उच्च उड़ान।
झेल आँधियाँ धूल, बवंडर, सदा बनी पहचान।।
तूफ़ानों में दीप जलाकर, दूर करे अँधियार।
परशुराम सम अटल इरादे, भुजबल का आधार।।
दृढ़ प्रतिज्ञ ज्यों भीष्म पितामह,बना धैर्य प्रतिमान।
हनुमत के सम शैल उठाकर, करे नहीं अभिमान।।
लक्ष्य साध मंज़िल तक पहुँचा,संकल्पित व्यवहार।
परशुराम सम अटल इरादे, भुजबल का आधार।।
भागीरथ-सा कर्मवीर नित, रचता नवल विधान।
अवरोधों से जा टकराया, बढ़ा दिया कुल मान।।
कठिन तपस्या भू पर लाई, गंगा की जल धार।
परशुराम सम अटल इरादे, भुजबल का आधार।।
गर्जन करता सिंह दहाड़े, दुश्मन हों भयभीत।
दृढ़ निश्चय वाला निज बूते,पाता हरदम जीत।।
अंतस् में विश्वास अनूठा, प्रबल शक्ति आगार।
परशुराम सम अटल इरादे, भुजबल का आधार।।
------
घूँट विफलता के पीकर तुम, बुझदिल ही कहलाओगे।
तूफ़ानों से टकराकर तुम, कश्ती पार लगाओगे।
लक्ष्य साधना उर जब बसती,
जंग जीत कर लाती है।
बीज निराशा के मन बोकर,
शूल फसल उग पाती है।
संघर्षों से लड़कर ही तुम, मंज़िल अपनी पाओगे।
तूफ़ानों से टकराकर तुम, कश्ती पार लगाओगे।
लघु पिपीलिका का श्रम देखो,
निज पहचान बनाती है।
काट व्याल की दीर्घ शुंडिका,
बुद्धि भ्रष्ट कर जाती है।
साहस के बल बूते पर तुम, व्योम ध्वजा फहराओगे।
तूफ़ानों से टकराकर तुम, कश्ती पार लगाओगे।
ऊँचाई के शैलशिखर चढ़,
दृढ़ विश्वास जगाओ तुम।
क्लांत भाव से रुक मत जाना,
दिनकर बन दिखलाओ तुम।
तप साधक हो कर्मवीर तुम, नव इतिहास रचाओगे।
तूफ़ानों से टकराकर तुम, कश्ती पार लगाओगे।
Ravi Jindal
Sarni, Dist Betul MP
9826503510
agrodayapatrika@gmail.com
© agrodaya.in. Powerd by Ravi Jindal