(मंगलवत्थू (रोली) छंद में मुक्तक)
पूजो प्रथम गणेश, जगत पालनहारी।
महिमा अगम अपार, भक्त के हितकारी।
कष्ट कटें भज नाम, अभय के वर दाता-
रिद्धि-सिद्धि के नाथ, हरें विपदा सारी।
गजमुख बदन विशाल, भोग मोदक प्यारा।
मूषक वाहन साज, लगे सबसे न्यारा।
एकदंत गजकर्ण, देव हैं सुखदायक-
देते गणपति ईश,कष्ट से छुटकारा।
गणनायक गणराज, कृपा इतनी करना।
देना बुद्धि विवेक, ज्ञान अंतस् भरना।
सुखी रहे परिवार, अरज सुन लो मेरी-
विघ्न विनाशक आप, सकल बाधा हरना।
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कर्म सदा हितकारी
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(योद छंद में मुक्तक)
उठे शत्रु की अँगुली, तोड़ गिराएँ।
नेक कर्म कर अपना, नाम कमाएँ।
शूल बिछा कर मानव, सुखी न होते-
गले लगा परिजन को, बैर भुलाएँ।
दुष्ट-पतित नरभक्षी, प्रेम जताएँ।
पाप कर्म कर निष्ठुर, यज्ञ कराएँ।
भरे मैल मन भीतर, गंग नहाते।
ईश नाम जप माला, ढोंग रचाएँ।
अनुभव हमको जीवन, रीति सिखाएँ।
सुख-दुख नदिया धारे, गीत सुनाएँ।
दीन-दुखी की सेवा, धर्म हमारा-
कर्म सदा हितकारी, प्रीत बढ़ाएँ।
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नीयति का तांडव
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(गीतिका छंद में मुक्तक)
मेघ फट कर त्रासदी की फिर कहानी कह गया।
कुपित होकर गंग शुचि जल निगल लाशें बह गया।
देव भू पर सिसक श्वांसें तोड़ती दम दिख रहीं-
कालविजयी आपदा लख दंग मानव रह गया।
उत्तराखंडीय जीवन लग रहा संहार है।
हौसलों को पस्त करता क्षुब्ध पारावार है।
घृणित कुत्सित देख मंज़र ध्वनित डमरू हो गया-
नियति का यह नृत्य तांडव वक्त की हुंकार है।
दाँव पर केदार है अब यह प्रलय थमता नहीं?
सृष्टि की चेतावनी यह अतिक्रमण रुकता नहीं?
तीर्थ को दूषित बना जग कर रहा मनमानियाँ-
दंभ का परिणाम दुष्कर झेल नर झुकता नहीं।
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कपटी रिश्ते
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(सरसी छंद में मुक्तक)
कपटी रिश्ते धोखा देते, खूब दिखाते प्यार।
मीठी-चुपड़ी बातें करते, मन में रखते खार।
परिजन के पथ शूल बिछाते, देते हरदम घात-
अवसरवादी बिना विचारे, करते छुप कर वार।
भारत देश महान
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प्रजातंत्र गणराज्य कहाता, भारत देश महान।
दसों दिशा में गूँजे इसका, वैभवशाली गान।
तीन रंग की ध्वजा निराली, महिमा अपरंपार-
लिपट तिरंगे में पाते हैं, वीर यहाँ सम्मान।
लोकतंत्र की जीत कदाचित, मत समझो आसान।
पाँच साल रुक कर ही जनता, करती है मतदान।
सत्ताधारी लोग बनाते, जनमत की सरकार-
सर्व धर्म सम्मान बना है, जन-गण-मन का गान।
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फाग
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(चुटियाला छंद में मुक्तक)
टेसू में राधा रँगी, कान्हा हुए गुलाल प्यार में।
वृंदावन होली हुआ, करते ग्वाल धमाल प्यार में।
नोंक-झोंक रस घोलती, छलकाती उद्गार फाग में-
फगुनाहट ऐसी चढ़ी,यौवन किया हलाल प्यार में।
तन में बजती बाँसुरी, मन में बजे मृदंग फाग में।
सुधि बिसराकर राधिका,रँगी कृष्ण के रंग फाग में।
लोचन मदिरालय हुए, श्वाँस हुई मकरंद प्यार में-
अंतस घट केसर घुली, गदराए सब अंग फाग में।
मुखमंडल माधव मलें,चढ़ा प्रेम मन रोग जान लो।
गोरी उर ऐसी बसी, रुचे न दूजा भोग जान लो।
मोहन राधामय हुए, रँगे प्रीत के रंग साँवरे-
मधुरस प्याला जो पिया,मुखर हुआ उर जोग जान लो।
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भोर
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(उपमान छंद में मुक्तक)
सूर्य उदित हो पूर्व में, भोर नवल लाता।
सप्त अश्व आरूढ़ हो, लाली छितराता।
उल्लासित वसुधा वधू, चूनर लहराती-
सौर भानु नित प्रेमरस, भू पर छलकाता।
खगदल उड़ते व्योम में, पिक मंगल गाती।
हलधर जोतें खेत को, हरियाली भाती।
कली काल लख पुष्प को, अलिदल मँडराता-
नवल उमंगित,चेतना, जन उर हर्षाती।
सूर्य नमन कर जन सभी, पाते सुख भारी।
सुमिरन कर प्रभु नाम का, पूजें नर- नारी।
ओम घंटिका शंख स्वर, भरता मन ऊर्जा-
श्री चरणों में भक्तजन, जाते बलिहारी।
ढूँढ़ता मंजिल भटकता आज वन में आ गया।
नेह की छतरी बना सिर पुष्प मेरे छा गया।
मंद झोंके छू पवन के कर रहे अठखेलियाँ-
हरित आसन पीतवर्णी ताज मन को भा गया।
फिर खिज़ा का रूप देखो धर रही है जिंदगी।
शाख से पत्ते गिरे पतझड़ बनी है ज़िंदगी।
वक्त के आगे टिका है कौन दुनिया में कहो-
एक भूली याद बनकर रह गयी है ज़िंदगी।
अश्रु हैं अनमोल मुक्तक, रख सँजो तू दृग सजा कर।
दर्द के हमदर्द हैं ये, चक्षु में रखना छुपा कर।
ख़ार पीकर बेवफ़ाई, काम अश्कों का नहीं है-
ढाँप कर पलकों से अपनी, तू सदा रखना बचा कर।
शुभ्रवर्णी देह झिलमिल चंद्रिका ज्यों चमकती ।
भाल शोभित रक्त मणिका दामिनी ज्यों दमकती।
कृष्ण कुंतल शोभिते मुख मदिर लोचन चंचला-
तारिका से माँग पूरित यामिनी ज्यों सँवरती।
सूर्य उदित हो पूर्व में, भोर नवल लाता।
सप्त अश्व आरूढ़ हो, लाली छितराता।
उल्लासित वसुधा वधू, चूनर लहराती-
सौर भानु नित प्रेमरस, भू पर छलकाता।
खगदल उड़ते व्योम में, पिक मंगल गाती।
हलधर जोतें खेत को, हरियाली भाती।
कली काल लख पुष्प को, अलिदल मँडराता-
नवल उमंगित,चेतना, जन उर हर्षाती।
सूर्य नमन कर जन सभी, पाते सुख भारी।
सुमिरन कर प्रभु नाम का, पूजें नर- नारी।
ओम घंटिका शंख स्वर, भरता मन ऊर्जा-
श्री चरणों में भक्तजन, जाते बलिहारी।
यह जीवन है क्षणिक बुलबुला, साथ नहीं सब जाना है।
पूत,देह,नफरत का रेला, छल-प्रपंच ढह जाना है।
कालपाश में फँसी ज़िंदगी, रे मानव क्यों इतराता?
अंत समय मिट्टी में मिल कर, गर्व यहीं रह जाना है।
Ravi Jindal
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