विधा-ग़ज़ल

इश्क की होली

इश्क की होली

-----------------
(काफ़िया- ईर, रदीफ़- रखते हैं)

किनारा कर लिया जग से मगर मन पीर रखते हैं।
जलाकर इश्क की होली जख़्म गंभीर रखते हैं।

हवा का तेज़ झोंका ले उड़ा यादें जवानी की
ज़हर के घूँट पीने की अजी तासीर रखते हैं।

कँटीले तीर के खंज़र चलाकर देख ले दुनिया
जिगर में हौसले की हम सदा शमशीर रखते हैं।

मिटाया रंज़ो गम को ज़िंदगी की स्याह रातों से
इरादों में बुलंदी की यहाँ तासीर रखते हैं।

नहीं छोड़ा खुशी का ज़ाइका दिल ख़ार कर डाला
बना अंगार हसरत को जकड़ जंज़ीर रखते हैं।

नहीं शिकवा -शिकायत है नहीं मज़बूरियाँ 'रजनी'
पुरानी दास्तां तजकर नई तहरीर रखते हैं।


मोहब्ब को नहीं रुस्वा करेंगे

मोहब्ब को नहीं रुस्वा करेंगे

-----------------
(काफ़िया-आ, रदीफ़-करेंगे)

तुम्हारी याद में रोया करेंगे।
समंदर आँख से छलका करेंगे।

फ़रेबी आइना भी हो गया है
बताओ किससे हम शिकवा करेंगे।

फ़कत अहसास बन रहना हमेशा
सुबह-ओ-शाम हम सज़दा करेंगे।

मिलोगे जब कभी तन्हाई में तुम
लिए आगोश में महका करेंगे।

निगाहों में बसाकर यार तुमको
तसव्वुर ख़्वाब में देखा करेंगे।

तुम्हारे ग़म को अपना ग़म समझकर
निभाएँगे वफ़ा वादा करेंगे।

कसम खाकर कहे 'रजनी' तुम्हारी
मुहब्बत को नहीं रुस्वा करेंगे।


इश्क बनाम बेवफ़ाई

इश्क बनाम बेवफ़ाई

-----------------
(काफ़िया-आरों, रदीफ़-को)

क्या कहूँ बात इन बहारों को।
कर दो गुलज़ार रेज़गारों को।

शीरि फ़रहाद प्यार को तरसे
कौन समझाए आबशारों को।

दीप जलते हुए बुझा डाले
वो न समझेगा इन मज़ारों को।

दे भरोसा ख़ता निभाके गया
साथ रक्खो न राज़दारों को।

इश्क का मर्ज़ लादवा 'रजनी'
क्या मिला आज अश्कबारों को।


बेदर्द आशिक

बेदर्द आशिक

-----------------
(काफ़िया-अता, रदीफ़-रहा)

दर्द आँखों से मेरी नासूर बन रिसता रहा।
याद में तकिया भिगो हर ज़ख्म को सहता रहा।

रौंदकर ख़ुदगर्ज़ दिल को खुद ख़ुदा बनकर जिए
गैर की महफिल सजाई आह मैं भरता रहा।

हसरतों में ज़िंदगी के इस सफ़र को काट कर
सोचकर अहसास उसका मैं ग़ज़ल लिखता रहा।

मुझ बिना जो जी न पाए बेवफ़ाई कर गए
मैं इबादत में सनम की आज तक झुकता रहा।

प्यार सीने में दफ़न कर राह में भटका किया
ख़्वाब नैनों में सजाए मैं सदा जलता रहा।

है बड़ी नासाज़ तबियत साँस चलती आखिरी
मुश्किलों के दौर में पीकर ज़हर हँसता रहा।

ज़िंदगी फिर रूँठ 'रजनी' लौट कर आती नहीं
मौत महबूबा बनी है मीत क्यों छलता रहा।


आदमी

आदमी

-----------------
(काफ़िया-आता, रदीफ़-आदमी)

ऐब दुनिया के गिनाता आदमी।
आपसी रंजिश बढ़ाता आदमी।

चंद सिक्कों में बिकी इंसानियत
भूल गैरत मुस्कुराता आदमी।

चाल चल शतरंज की हैवान बन
भान सत्ता का दिलाता आदमी।

मुफ़लिसी पे वो रहम खाता नहीं
चोट सीने पे लगाता आदमी।

मोम बन ख़्वाहिश पिघलती हैं यहाँ
आग नफ़रत की लगाता आदमी।

घोल रिश्तों में ज़हर तन्हा रहा
बेच खुशियाँ घर जलाता आदमी।

गर्दिशें तकदीर में 'रजनी' लिखीं
ख्वाब आँखों से सजाता आदमी।


डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

Share
About Us

More info...

Ravi Jindal

Sarni, Dist Betul MP

9826503510

agrodayapatrika@gmail.com

Follow Us
Photos

© agrodaya.in. Powerd by Ravi Jindal