विधा-दोहा

पर्यावरण

पर्यावरण

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पर्यावरण
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धरती बंजर हो गई ,बढ़ती जाती पीर।
जल-थल दूषित हो गए, बात बड़ी गंभीर।।

पंछी बेघर हो गए, बैठे नदिया तीर।
ताक रहे सब गगन को, कौन हरेगा पीर?

मानव ने शोषण किया, बनकर भू अभिशाप।
भौतिकवादी सोच से, बढ़ा जगत संताप।।

वायु में विष घोल कर,किया मलिन व्यवहार।
जीवन संकट में पड़ा, कौन करे उपचार?

सुबक-सुबक धरती करे , व्याकुल मौन विलाप।
शुद्ध नहीं पर्यावरण, मानव है चुपचाप।।

पौधों का रोपण करो, जीवन का आधार।
हरिताभा छाई रहे, काटो रोग विकार।।

शुद्ध रहे पर्यावरण, जीव न हों बेहाल।
जीवन में आमोद हो, सब जन हों खुशहाल।।


संस्कार गुण-दोष

संस्कार गुण-दोष

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संस्कार गुण-दोष
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संस्कार गुण-दोष से, मिलती है पहचान।
स्वर्ण कलश मदिरा भरा, कभी न पाता मान।।

संस्कार गुण-दोष अरु, शिक्षा, संगति, मित्र।
जीवन के आधार ये, उन्नत करें चरित्र।।

संस्कार गुण-दोष हैं, व्यवहारों के मूल।
आँगन बोए शूल तो, मिले कहाँ से फूल।।

संस्कार गुण-दोष पर, जो देते हैं ध्यान।
यश, गौरव, के पात्र बन, पाते हैं सम्मान।।

घर, विद्यालय से मिलें, संस्कार गुण-दोष।
अवगुण तज व्यक्तित्व के, सदा मिले परितोष।।

पाओ निर्मल सोच से, सुखद,सुखी संसार।
संस्कार, गुण ,दोष हैं, जीवन के आधार।।

गीली माटी से रचे, विविध पात्र कुम्हार।
संस्कार, गुण, दोष से, मिलते हैं आकार।।

अभिमानी के हृदय में ,भरा हुआ है रोष।
कैसे परखें आज हम, संस्कार, गुण, दोष।।

शिक्षा देकर गुरु भरे, सद्बुद्धि के कोष।
बालक खुद अर्जित करे, संस्कार, गुण, दोष।।


कितने घातक हो गए

कितने घातक हो गए

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कितने घातक हो गए
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कितने घातक हो गए, मानव के व्यवहार।
डँसा सर्प बन पूत ने, मुश्किल है उपचार।।

कोरोना ने छीन ली, अधरों की मुस्कान।।
कितने घातक हो गए, सब इसके परिणाम।।

कितने घातक हो गए, कपट, द्वेष ,अभिमान।
छल ने जीवन हर लिया, कोई नहीं निदान।।

कितने घातक हो गए, दानव बन इंसान।
डाँका डालें लाज पर, नहीं सुरक्षित आन।।

कितने घातक हो गए, मांसाहारी आप।
गोमाता को काटते, करते निर्भय पाप।।

कितने घातक हो गए ,मानवता के रूप।
गिरगिट जैसे बदलते,पल-पल जन अरु भूप।।

भाई-भाई लड़ रहे, संस्कार गए भूल।
कितने घातक हो गए, घर में उगे बबूल।।

कितने घातक हो गए, नेताओं के बोल।
सभी दुधारी चाल चल , खोल रहे हैं पोल।।


रही न हाथ लगाम

रही न हाथ लगाम

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रही न हाथ लगाम
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काया से लाचार हो, पिता रहा नाकाम।
सत्ता सोंपी पुत्र को, रही न हाथ लगाम।।

भाई-भाई कर रहे, रिश्तों को बदनाम।
खून-खराबा हो गया, रही न हाथ लगाम।।

अच्छे दिन की सोचकर, बिगड़े सारे काम।
महँगाई सिर पर चढ़ी, रही न हाथ लगाम।।

मृदु वाणी की आड़ में, जख़्मी किए तमाम।
जब छलनी उर निज हुआ, रही न हाथ लगाम।।

भौतिकता चश्मा चढ़ा, भूला प्रभु का नाम।
अंत समय तन भोगता, रही न हाथ लगाम।।


सब विनाश के काम

सब विनाश के काम

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सब विनाश के काम
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धूम्रपान की लत लगी, दिखा नहीं परिणाम। बिन सोचे-समझे किए, सब विनाश के काम। आब गई व्यभिचार में, धूमिल जग में नाम। खुले आम दानव करे, सब विनाश के काम।। खैनी, गुटका अरु नशा, सब विनाश के काम। समय बिताया भोग में, किया नहीं सत्काम।। काम, क्रोध, मद, लोभ हैं ,सब विनाश के काम। ये सारे घातक व्यसन, करें नाम बदनाम।। जीवन मायाजाल है, जप लो प्रभु का नाम। चीर- हरण, छल, कपट हैं, सब विनाश के काम।।


डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
वाराणसी (उ.प्र.)

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